अवतरण दिवस 7 जुलाई पर विशेष
रायगढ़ (सृजन न्यूज)। पंडित फिरतु महाराज का जन्म 7 जुलाई सन 1921 को जांजगीर जिले के बुंदेला गांव में हुआ। पिता मंदिर के पुजारी थे तथा कर्ण मंत्र से दीक्षा दिया करते थे। रायगढ़ दरबार के हारमोनियम मास्टर मुकुट राम ने बालक फिरतु को रायगढ़ दरबार हेतु मांग लिया। सन 1929 में मुकुट राम के साथ रायगढ़ दरबार आए, जहां उनकी शिक्षा पंडित जयलाल महाराज से तबला एवं नृत्य कथक नृत्य की उत्कृष्ट शिक्षा अच्छन महाराज, सीताराम एवं हरनारायण से प्राप्त हुई।
भाव नृत्य की शिक्षा जगन्नाथ महाराज तथा मोहम्मद खां एवं छुट्टन भाई से गायन के शिक्षा प्राप्त की। फिरतू महाराज में तांडव अंग की प्रमुखता थी, साथ ही कथक के सूक्ष्म पक्षों पर भी समान पकड़ के साथ पढंत पर विद्वता थी। बड़े से बड़े मात्राओं वाले तालों पर सुंदर रचना एवं पढंत में उनका कोई जोड़ नहीं था। पं. फिरतु स्वाभिमान के प्रतीक थे। ईमानदारी लगन एवं कठिन परिश्रम उनके जीवन शैली के अंग थे। फिरतू महाराज स्वतंत्र विचारों के कलाकार थे। एक बार वे बिना बताए नेपाल दरबार के आमंत्रण पर वहां पहुंचे। उनके नृत्य से नेपाल नरेश अत्यंत प्रसन्न हुए तथा दरबार में ही उन्हें रख लिया। राजा चक्रधर सिंह को इसकी भनक लगने पर कड़ी आपत्ति दर्ज करा उन्हें वापस बुला लिया गया। राजा साहब की क्षुब्धता से वे कुछ दिन गांव में ही रहे। उन्होंने वहां कुछ बालकों को नृत्य की शिक्षा देना प्रारंभ किया। कुछ ही समय में उन्होंने गांव के एक बालक भागवत दास को कत्थक में इतना योग्य बना दिया कि वह बड़े से बड़े मंचों पर भी प्रशंसित होने लगे।
एक बार खुद फिरतु महाराज ने उन्हें गणेश मेला की प्रतियोगिता में उतारा। राजा साहब ने जब उसका नृत्य देखा तो अचंभित हुए तथा फिरतु महाराज को पुनः दरबार में नियुक्त किया। फिरतू दास ने 1933 में कार्तिक एवं जय कुमारी के साथ म्यूजिक कॉन्फ्रेंस ऑफ इलाहाबाद 1936 में संगीत नृत्य सम्मेलन राजा चक्रधर सिंह के साथ कानपुर संगीत सम्मेलन में हिस्सा लिया। शीघ्र ही भारत के प्रमुख संगीत सम्मेलनों में ख्याति मिलने लगी एवं देश के लगभग सभी संगीत समारोह में उन्हें आमंत्रित किया जाने लगा। राजा साहब की मृत्यु के पश्चात जब सभी कलाकार एक-एक कर दरबार एवं रायगढ़ को छोड़कर जाने लगे, तब फिरतु महाराज ने सभी प्रकार के आमंत्रण को अस्वीकार कर रायगढ़ को ही अपना कार्य क्षेत्र बनाया। उड़ीसा व छत्तीसगढ़ में फिरतु महाराज ने जितने शिष्य तैयार किए उतने किसी अन्य कलाकार ने तैयार नहीं किया।
उनके प्रमुख शिष्यों में विभा रानी गुप्ता ( इंदौर), शैल शर्मा (मुंबई) मंजू शर्मा (जयपुर) शाश्वत एवं सास्वती बागची (यूनाइटेड किंगडम), राममूर्ति वैष्णव, वसंती वैष्णव, सुनील वैष्णव, शरद वैष्णव, गौरी शर्मा (ग्वालियर) जैसे अनगिनत नाम रायगढ़ कत्थक को विश्व मंच पर अंकित कर रहे हैं। रायगढ़ की कला का व्यापक प्रचार एवं जन-जन तक पहुंचाने के उद्देश्य से सन् 1965 में श्री वैष्णव संगीत महाविद्यालय की स्थापना की, साथ ही विद्यार्थियों की कला के प्रमाणीकरण हेतु प्रयाग संगीत समिति से इलाहाबाद से 1972 में मान्यता प्राप्त की जिसे वर्तमान में आज भी प्रतिवर्ष सैकड़ों छात्र व छात्राएं रायगढ़ कत्थक के पुष्प बनकर उभर रहे हैं। नृत्य, संगीत कला के अद्वितीय साधक के रूप में आज अनेक शिक्षार्थी उनके संपूर्ण जीवनी एवं कला के क्षेत्र में योगदान पर शोध कार्य कर चुके हैं। उन्होंने सन 1990 में बिलासपुर में कला विकास केंद्र की नींव रखी।
29 नवंबर 1992 में महाराज की मृत्यु के पश्चात 1998 में कला विकास केंद्र को पूर्ण रूप से स्थापित किया गया। उनकी स्मृति में 1995 में मधुगुंजन संगीत समिति की स्थापना की गई। यह सभी संस्थाएं आज विश्व में रायगढ़ कथक को मजबूती से थामे हुए निरंतर नित नए कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं।( साभार : शरद वैष्णव, रायगढ़ )